बाजार चक्र के रुझान को समझना

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उत्पाद जीवन चक्र

उत्पाद जीवन चक्र चरणों का एक क्रम है जिसमें जारी किया गया प्रत्येक उत्पाद बाजार में अपनी उपस्थिति के क्षण से शुरू होकर उसे छोड़ने के क्षण तक गुजरता है (यदि उसकी उत्पादन या अनुभूति समाप्त हो गई है)। सीधे शब्दों में कहें, उत्पाद जीवन चक्र उत्पाद के अस्तित्व और उपलब्धता की अवधि है।

उत्पाद जीवन चक्र का उपयोग विज्ञापन रणनीति बनाने के लिए मार्केट में सक्रिय रूप से किया जाता है, क्योंकि नियंत्रण रेखा के प्रत्येक चरण की अपनी विशिष्ट विशेषताएं हैं जिनका उपयोग प्रचार के लिए किया जा सकता है। प्रत्येक चरण के अपने विशिष्ट लक्ष्य और उद्देश्य भी होते हैं।

एक चक्र की अवधि कुछ दिनों या दशकों जितनी लंबी हो सकती है। आमतौर पर, यह अवधि निम्नलिखित बातों पर निर्भर करती है:

  • जिस उद्योग में उत्पाद जारी किया गया था;
  • देश की अर्थव्यवस्था (रुझान और मुद्रास्फीति के स्तर सहित);
  • बाजार की बारीकियां;
  • उत्पाद की बारीकियां।

उदाहरण के लिए, दवाओं का जीवन चक्र कई वर्षों का होता है, लेकिन एक फोन के निश्चित मॉडल का 2-3 वर्ष का होता है। "संवेदनात्मक" श्रेणी के उत्पाद केवल कुछ हफ़्ते ही रह सकते हैं।

उत्पाद जीवन-चक्र का सिद्धांत

उत्पाद जीवन-चक्र का सिद्धांत पहली बार 1966 में अमेरिकी अर्थशास्त्री रेमंड वर्नोन द्वारा प्रस्तावित किया गया था। शोधकर्ता ने सभी विश्व व्यापार के विकास के लिए एक मॉडल की पहचान करने की कोशिश की। ऐसा करने के लिए, उन्होंने सभी जीवित जीवों के जीवन चक्र को एक पैटर्न के रूप में लिया। वर्नोन के सिद्धांत के अनुसार, किसी उत्पाद के जीवन चक्र के शुरुआती चरणों में, उस उत्पाद के सभी काम उस बाजार खंड में केंद्रित होते हैं जिसमें उसे लॉन्च किया गया था। हालांकि, समय के साथ, उत्पाद उस सेगमेंट से और उससे आगे निकल जाता है। अंत में, उत्पाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रवेश करता है और आयात किया जाता है।

उत्पाद जीवन-चक्र की अवधारणा

पारंपरिक दृष्टिकोण में उत्पाद जीवन चक्र की अवधारणा 1965 में अमेरिकी अर्थशास्त्री थियोडोर लेविट द्वारा विकसित की गई थी। उनकी दृष्टि के अनुसार, एक उत्पाद को दूसरे के साथ बदलना, अधिक संशोधित और समाज की नई जरूरतों को पूरा करना हमेशा अनिवार्य है। इसलिए पुराने को नए से बदलना जीवन चक्र की अवधारणा को दर्शाता है। सिद्धांत की मूल थीसिस यह है कि कोई भी उत्पाद, चाहे वह कितना भी लोकप्रिय क्यों न हो, एक दिन बाजार छोड़ देगा।

आधुनिक बाजार को गतिशीलता और उत्पादों की बढ़ती विविधता के साथ-साथ नई सामग्रियों और उत्पादन विधियों की नियमित उपस्थिति की विशेषता है। इन स्थितियों में, उत्पाद जीवन चक्र मॉडल का उपयोग उत्पादन में नई तकनीकों के समय पर परिचय और निम्नलिखित रुझानों के माध्यम से उत्पाद के " उत्पाद की ताज़गी" के लिए किया जाता है। इसलिए, यदि उत्पाद लगातार बदल रहा है, तो जीवन चक्र लंबा हो जाता है।

उत्पाद जीवन चक्र चरण

उत्पाद जीवन चक्र किन चरणों से मिलकर बनता है? पारंपरिक चक्र में चार चरण होते हैं: बाजार चक्र के रुझान को समझना परिचय, वृद्धि, परिपक्वता और गिरावट। आमतौर पर, प्रत्येक उत्पाद उत्पाद जीवन चक्र के सभी चरणों से गुजरता है। उन्हें ग्राफ पर देखा जा सकता है:

चरण 1 - परिचय

उत्पाद जीवन चक्र के इस चरण में, उत्पाद को बाजार में लाया जाता है। इस चरण के निम्नलिखित लक्षण हैं:

  • अस्थिरता और उत्पाद के भविष्य के विकास की भविष्यवाणी करने में असमर्थता;
  • दर्शकों को सूचित और प्रोत्साहित करने के लिए मार्केटिंग स्ट्रेटेजी की ओर बढ़ना,
  • उसकी परिचितता;
  • उच्च विज्ञापन लागत;
  • छोटे उत्पादन संस्करणों के साथ उच्च उत्पादन लागत;
  • न्यूनतम लाभ, कभी-कभी यह लागत से कम होता है;
  • धीमी बिक्री वृद्धि।

चरण 2 - वृद्धि

उत्पाद ने बाजार में पैर जमाना शुरू कर दिया है और आगे की वृद्धि के लिए पहले से ही पर्याप्त दर्शकों का ध्यान आकर्षित कर चुका है। उत्पाद जीवन चक्र के दूसरे चरण में निम्नलिखित विशेषताएं हैं:

  • बिक्री में तेजी से वृद्धि;
  • बढ़े हुए मुनाफे और कम लागत के साथ-साथ उत्पादन की बढ़ी हुई मात्रा को देखते हुए कम उत्पादन लागत;
  • सामग्री और उत्पाद के लिए स्थिर मूल्य;
  • मार्केटिंग स्ट्रेटेजी दर्शकों को आकर्षित करने से लेकर आकर्षक बनाने की ओर स्विच कर रही है;
  • उच्च मार्केटिंग लागत;
  • अन्य कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा में वृद्धि।

चरण 3 - परिपक्वता

उत्पाद ने बाजार में एक स्थिर स्थिति ले ली है और एक स्थायी दर्शक प्राप्त कर लिया है। यह चरण निम्नलिखित विशेषताएं हैं:

  • मांग अपने चरम पर है, लेकिन बाजार की अधिकता के कारण बिक्री घट रही है;
  • बाजार को वर्गीकृत किया जा रहा है और दर्शकों का विस्तार हो रहा है;
  • बाजार विभाजन होता है और दर्शकों का विस्तार होता है;
  • दर्शकों की नई मांगें, जिन पर पहले ध्यान नहीं दिया गया था, संतुष्ट हैं;
  • उत्पाद की कीमत घट जाती है और लाभ घट जाता है;
  • कंपनी का मुख्य उद्देश्य मौजूदा ग्राहकों को बनाए रखना है;
  • प्रतिस्पर्धात्मक लाभ प्राप्त करके बाजार हिस्सेदारी का विस्तार करना;
  • साझेदारी और सहयोग बनाना;

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रवेश करने का अवसर है।

स्टेज 4 - गिरावट

इस स्तर पर, जिन लोगों को उत्पाद की आवश्यकता थी, वे पहले ही उसे खरीद चुके थे। कंपनी उन कंपनियों से पीछे हटना शुरू कर रही है जो परिचय या विकास के चरण में हैं। निम्नलिखित संकेत गिरावट के चरण की शुरुआत का संकेत दे सकते हैं:

  • उत्पाद की मांग में धीमी लेकिन निरंतर गिरावट;
  • कम उत्पादन;
  • धन की वापसी और बजट में कटौती;
  • दर्शकों की कमी;
  • अवशिष्ट बाजार पर एकाग्रता;
  • प्रयुक्त तकनीकों और उत्पाद गुणों की अप्रचलन;
  • मार्केटिंग लागत में वृद्धि ठोस परिणाम नहीं लाती है।

आमतौर पर, मृत्यु मंदी के चरण का अनुसरण करती है: कंपनियां बंद हो जाती हैं और बाजार

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वृद्धि रुझान की फिक्र करें, चक्र की नहीं

वृहद-आर्थिक परिणामों को दीर्घावधि रुझान बनाम अल्पावधि कारोबारी चक्र अनियमितता में बांट देना उपयोगी है। भारत की विकास कहानी में 2011-12 के दौरान वृद्धि रुझान गिरावट पर आ गया था। इससे जुड़ा पहलू यह है कि हमें कारोबारी चक्र परिस्थितियों में पतन देखना पड़ा था। ये दोनों परिघटनाएं आज एक साथ घटित हो रही हैं। भारत में वृहद-आर्थिक नीति के परंपरागत साधन अस्पष्ट हैं और वृद्धि रुझान में गिरावट पर यह ज्यादा फर्क नहीं डाल पाते हैं। भारतीय अर्थशास्त्र में सबसे अहम सवाल वृद्धि रुझान में गिरावट को समझने और उसे पलटने का है।

भारत में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आकलन से जुड़ी कई समस्याएं हैं। हम मजबूत आंकड़ों से काफी कुछ सीख सकते हैं। अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाली संस्था सीएमआईई के आंकड़े करीब 50,000 फर्मों पर निगाह रखते हैं और इससे आधुनिक क्षेत्र के बारे में एक तस्वीर उभरती है। हम अर्थव्यवस्था के सबसे महत्त्वपूर्ण घटक निजी गैर-वित्तीय फर्मों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वर्ष 1990-91 से लेकर 2011-12 की अवधि में उच्च वृद्धि का दौर रहा था लेकिन उसके बाद वृद्धि दर में नीचे का रुझान है।

बिक्री में वृद्धि के आंकड़ों से हम शुरुआत करते हैं। 1991 से 2011-12 की अवधि में नॉमिनल बिक्री वृद्धि प्रति वर्ष औसतन 16.4 फीसदी रही। उसके बाद के सात वर्षों में यह दर गिरकर 10.5 फीसदी प्रति वर्ष हो गई। निवेश को जांचने का बढिय़ा तरीका शुद्ध अचल संपत्तियों की प्रतिशत वृद्धि है। वर्ष 1990-91 से 2011-12 के दौरान इसकी औसत वृद्धि दर 17.4 फीसदी थी और उसके बाद के सात वर्षों में यह अपेक्षाकृत कम 10.3 फीसदी रहा है। यह वृद्धि रुझान में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव है।

दीर्घावधि वृद्धि रुझान से जुड़ी हुई कारोबार चक्र अनियमितता की परिघटना है। ये कम समय तक चलने वाला उफान और गिरावट है, जो फर्मों के जरिये स्टॉक-निवेश-लाभपरकता की अनिश्चितता का सदाबहार चक्र है। हमारी यहां और अब समस्या 2018 के अंत में शुरू हुए कारोबारी चक्र हालात में पतन है। कारोबार चक्र की उठापटक को कुछ हद तक वृहद-आर्थिक नीति के परंपरागत तरीकों- राजकोषीय एवं मौद्रिक नीति से भी साधा जा सकता है। हममें से कई लोग समष्टि अर्थशास्त्र की अंतरराष्ट्रीय किताबें पढ़ते रहे हैं और हममें इस निष्कर्ष पर पहुंचने की प्रवृत्ति होती है कि समष्टिवादी नीति के साधन कारोबार चक्र अनिश्चितता से मुकाबले में कारगर हैं।

हालांकि भारत की स्थिति में हमें अपनी आकांक्षाओं को लेकर बहुत सीमित होना चाहिए। भारत में राजकोषीय नीति इस तरह से नहीं बनी है जो स्थिरीकरण में मदद करे। वर्ष 2015 में मुद्रास्फीति को काबू में रखने की शुरुआत होने से पहली बार मौद्रिक नीति कारोबार चक्र स्थिरीकरण में मदद मिलने लगी है। जब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति को चार फीसदी के नीचे रखना चाहती है तो इससे कारोबारी चक्र उठापटक पर काबू पाने के लिए नीतिगत दरों में कभी तेजी तो कभी नरमी के हालात बनेंगे। उसी के साथ हमारे पास एक अल्पविकसित वित्तीय प्रणाली होने से आरबीआई की क्षमता भी सीमित है।

हमें मुद्रास्फीति नियंत्रण का काम ठीक से करना चाहिए लेकिन हमें यह भी पता होना चाहिए कि भारत में इसकी क्षमता कम है और हमें पता होना चाहिए कि भारत में राजकोषीय नीति समष्टि-अर्थशास्त्रीय स्थिरीकरण का हिस्सा नहीं है। नतीजतन, किताबों की तरह भारत में वृहद आर्थिक नीति के जरिये स्थिरीकरण नहीं हो पाता है। वैसे हमें बहुत निराश होने की जरूरत नहीं है। कारोबार चक्र की हरेक गिरावट के बारे में एक बात अच्छी है कि अगर उसे यूं ही छोड़ दें तो वह खुद-ब-खुद ठीक हो जाएगी। भारत में कारोबारी उठापटक का लंबा इतिहास हमें आश्वस्त करता है कि वृहद नीतियों के निष्प्रभावी एवं भ्रमित होने के बावजूद अतीत में गिरावट थम गई।

इससे कहीं बड़ी समस्या वृद्धि रुझान में गिरावट है जिस पर हमें फिक्र करनी चाहिए। आज भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे अहम सवाल यह है कि 1990 से 2011 के दौरान हमारी वृद्धि इतनी ऊंची क्यों थी और फिर 2011 के बाद इसमें गिरावट का रुझ क्यों रहा? इस समस्या को समझ पाने में हम जिस हद तक कामयाब होते हैं और ठोस बौद्धिक समझ के आधार पर अपने रास्ते बदल पाते हैं तो वह कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होगा।

इस प्रक्रिया में हमें कारण और प्रभाव की सरलीकृत धारणाओं से परहेज करना चाहिए। इस बात का खतरा है कि 1991 में शुरू हुए उच्च वृद्धि के सिलसिले के लिए जुलाई 1991 के बजट भाषण को श्रेय दिया जाए। इसी तरह इस उफान के खत्म होने के लिए प्रणव मुखर्जी के 2011 के बजट भाषण को जिम्मेदार मानने का भी खतरा है। लेकिन इस पैमाने की सामाजिक परिघटना साधारण व्याख्या से रोकती है। वृद्धि बाजार चक्र के रुझान को समझना रुझान में बदलाव ऐतिहासिक कारणों और कई वर्षों की मानव गतिविधियों का सामूहिक नतीजा रहा है।

1991-2011 बूम की बुनियाद कई कारकों ने रखी थी। भारतीय समाजवाद से दूर जाती आर्थिक नीति का भी इसमें योगदान रहा है। वर्ष 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद से 1991 तक कई कदम उठाए गए। जुलाई 1991 में बजट भाषण इस दिशा में नाटकीय बदलाव लाने वाला साबित हुआ।

इसी अंदाज में इस वृद्धि प्रकरण का अंत 2011-12 में मानव कृत्यों से नहीं हुआ था। जब भारत की जीडीपी काफी बढ़ गई तो हमारे संस्थान बड़ी एवं अधिक जटिल अर्थव्यवस्था बाजार चक्र के रुझान को समझना से निपटने में नाकाफी रहे थे। एक परिष्कृत निजी अर्थव्यवस्था को आपराधिक न्याय व्यवस्था, विवाद निपटान, न्यायपालिका, आर्थिक नियमन और कर प्रणाली में काबिलियत की जरूरत होती है। इसके लिए आर्थिक आजादी एवं राजनीतिक स्वतंत्रता के इर्दगिर्द बुनी लोक नीति के मूल्यों की जरूरत होती है। लेकिन हम वर्ष 2014 में दो लाख करोड़ डॉलर की जीडीपी पर सिमटकर रह गए जिसकी संस्थागत क्षमता 1982 की 20 हजार करोड़ डॉलर अर्थव्यवस्था लायक ही थीं।

समय बीतने के साथ निजी क्षेत्र की जरूरतों एवं संस्थाओं की क्षमताओं के बीच असंतुलन लगातार बिगड़ता गया। इस बढ़ते असंतुलन ने 2011-12 में वृद्धि प्रकरण का अंत कर दिया। इस वृद्धि प्रकरण के माध्यम से निजी कारोबारियों की नजर में उम्मीद एवं अनुभव के बीच तनाव देखा गया। उस दौरान संस्थानों के कामकाज में कई कमजोरियां थीं। हालांकि निजी स्तर पर लोग अपने अविश्वास को तिलांजलि देने को तैयार थे और वे यह मानना चाहते थे कि आज हालात खराब होने के बावजूद वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और सरकार की तरफ से समय-समय पर विपदा खड़ी करने पर समाधान निकाल लिया जाएगा। भारत के प्रति प्रतिबद्ध होने, भारत में ही कारोबार खड़ा करने और भारत में वित्तीय पूंजी निवेश करने के साथ यह मान्यता भी थी। वर्ष 2011-12 तक बदल जाने वाली बात यह थी कि इस आशावाद का क्षय हो गया।

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एक्सपर्ट कहते हैं कि इक्विटी में लगा पैसा किसी दूसरे एसेट में लगे पैसे की तुलना में तेजी से बढ़ता है. लेकिन आमतौर पर वे . अधिक पढ़ें

  • News18Hindi
  • Last Updated : October 10, 2022, 16:16 IST

हाइलाइट्स

व्यक्ति को निवेशक बनना चाहिए न कि केवल बचतकर्ता (Saver).
निवेशक के तौर पर आपके एसेट की कीमत भी महंगाई के साथ-साथ बढ़ती है.
बढ़ती जनसंख्या के दौर में बेहतर काम करने वाली कंपनियां मूल्यवान हो जाती है.

नई दिल्ली. निवेश करने वाले अधिकतर लोग मानते हैं कि लगातार बढ़ती महंगाई दर को मात देने के लिए निवेश का सबसे अच्छा साधन इक्विटी (शेयर मार्केट) है. एक्सपर्ट कहते हैं कि इक्विटी में लगा पैसा किसी दूसरे एसेट में लगे पैसे की तुलना में तेजी से बढ़ता है. एक्सपर्ट्स इक्विटी के पुराने रिटर्न को देखते हुए ऐसा कहते हैं, लेकिन अधिकतर लोग इस बात पर आंखें मूंदकर भरोसा कर लेते हैं. वे यह नहीं पूछते कि इस बात की क्या गारंटी है कि यदि इतिहास में अच्छा रिटर्न दिया है तो भविष्य में भी अच्छा रिटर्न मिलेगा ही?

यह सवाल पूछना जरूरी इसलिए है ताकि आपको इसका जवाब मालूम हो. इस प्रश्न का उत्तर जानकर आप यकीनन एक अच्छे निवेशक बन जाएंगे और आपकी वेल्थ के बढ़ने के चांस भी बढ़ जाएंगे.

हम स्टॉक मार्केट की बात कर रहे हैं तो यहां इसका मतलब ब्रॉड मार्केट इंडेक्स से समझा जाए. इंडेक्स कुछ स्टॉक्स की एक बास्केट की तरह हैं, जो ओवरऑल शेयर मार्केट का प्रतिनिधित्व करते हैं. कह सकते हैं कि इनकी चाल से पूरे बाजार की चाल समझी जा सकती है. तो हम आपको बता रहे हैं मूल सवाल के जवाब, जिसे लोग अक्सर पूछते नहीं है.

7 जवाब कर देंगे आपको “लाजवाब”
मुद्रास्फीति या महंगाई
जैसे-जैसे चीजों की कीमतें बढ़ती हैं, वैसे-वैसे उन चीजों को बनाने वाली कंपनियों के रेवेन्यू और प्रॉफिट भी बढ़ता है. इसके साथ ही कंपनी के स्टॉक की वेल्यू भी बढ़ती है. इसे यूं भी समझा जा सकता है कि स्टॉक इंडेक्स के स्तर के ऊपर जाना एक तरह से इन्फ्लेशनरी ग्रोथ ही है. महंगाई भी एक कारण है कि व्यक्ति को निवेशक बनना चाहिए न कि केवल बचतकर्ता (Saver). एक निवेशक के तौर पर आपके एसेट की कीमत भी मुद्रास्फीति के साथ-साथ बढ़ती है, परंतु एक बचतकर्ता का पैसा बढ़ता नहीं है.

जनसंख्या वृद्धि
बढ़ती जनसंख्या का मतलब आमतौर पर कंपनियों के लिए एक बड़ा योग्य बाजार होता है. और जो कंपनियां अपने बड़े और बढ़ते बाजार को सफलतापूर्वक सामान बेचती हैं, समय के साथ वे और अधिक मूल्यवान हो जाती हैं.

टेक्नोलॉजी का बढ़ता दायरा
आंकड़ों के आधार पर भी कहें तो जितने ज्यादा लोग होंगे, उतने ही अधिक जीनियस और अविष्कार करने वाले सामने आएंगे. जैसे कि वैश्विक जनसंख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे इन्सान की तरक्की और अविष्कारों की गति भी तेज हो रही है. और इसी के आधार पर कंपनियों का प्रॉफिट भी लगातार अच्छा हो रहा है, क्योंकि टेक्नोलॉजी के बिना इतनी बड़ी जनसंख्या को हर पक्ष से मैनेज करना मुश्किल है.

स्टॉक की नेचुरल सिलेक्शन
एक इंडेक्स में आमतौर पर बाजार की बड़ी और बेहतरीन कंपनियां शुमार होती हैं. यदि कोई कंपनी क्वालिफिकेशन क्राइटेरिया में फेल होती है तो उसे इंडेक्स से बाहर करके किसी दूसरी बेहतरीन कंपनी को इंडेक्स में शामिल कर लिया जाता है. ऐसे में निवेशक को विशेष तौर पर स्टॉक चुनने की कोई टेंशन नहीं रहती, क्योंकि यह एक नेचुलर सिलेक्शन है, जो हमेशा आउटपरफॉर्म करता है.

लम्बे समय में जोखिम भी देते हैं लाभ
यदि आप शार्ट टर्म के लिए बाजार में पैसा डालते हैं तो आपको नुकसान होने की संभावना रहती है, लेकिन यदि आप लम्बी अवधि के लिए फाइनेंशियल मार्केट में पैसा लगा रहे हैं तो आपको फायदा ही होगा. चूंकि शार्ट टर्म में जोखिम होता है तो लॉन्ग टर्म में आपको उस जोखिम के बदले में प्रीमियम मिलता है. इसे बाजार की भाषा में रिक्स प्रीमियम कहा जाता है.

सेंट्रल बैंक की भूमिका
जब इकॉनमी में जरूरी से अधिक महंगाई पैदा होती है तो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ब्याज दरों में इजाफा करके इसे शांत करने की कोशिश करता है, जिससे कि मुद्रास्फीति नियंत्रण में आ जाती है. इसके उलट, जब अर्थव्यवस्था लड़खड़ाती है तो केंद्रीय बैंक ब्याज दरों को कम कर देता है, जिससे लोग ज्यादा खर्च करते हैं और आर्थिक गतिविधियां बढ़ती हैं. मतलब, अर्थव्यवस्था को सुचारी रूप से चलाने के लिए केंद्रीय बैंक लगातार निगरानी करता है.

नीचे जाने के बाद बाजार ऊपर क्यों आता है?
बाजार में बिकवाली, डाउनटर्न, क्रैश से सबको डर लगता है. ये हर बाजार चक्र का हिस्सा हैं. आते हैं और गुजर जाते हैं. ये सदा के लिए टिकाऊ नहीं हो सकते. लेकिन क्यों? इसके कुछ कारण है-

जितना लम्बा टिकेंगे, जीतने के चांस उतने ज्यादा!
भारतीय इक्विटी मार्केट का इतिहास कहता है कि इसने लगभग 16 फीसदी का सालाना कम्पाउंडेड एवरेज रिटर्न दिया है. बाजार में समय कैसे निवेशक को फायदा पहुंचाता है, उसे एक डेटा से समझना चाहिए. पिछले 33 वर्षों के सेसेंक्स के आंकड़े बयान करते हैं कि 15 फीसदी सालाना रिटर्न पाने के लिए यदि आप 1-2 साल तक टिकते हैं तो आपके चांस 50 फीसदी होते हैं. यदि आप 7 साल के लिए निवेश में बने रहते हैं तो सालाना आधार पर 15 फीसदी रिटर्न पाने के चांस बढ़कर 66 फीसदी हो जाते हैं. इसी तरह 15 साल तक टिके रहने की स्थिति में चांस 70 फीसदी बन जाते हैं.

(Disclaimer: यह खबर केवल जानकारी के उद्देश्य से प्रकाशिक की गई है. यदि आप किसी भी शेयर में पैसा लगाना चाहते हैं तो पहले सर्टिफाइड इनवेस्‍टमेंट एडवायजर से परामर्श कर लें. आपके किसी भी तरह के लाभ या हानि के लिए News18 जिम्मेदार नहीं होगा.)

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