साधारण शब्दों में उविकास का अर्थ है , एक सादी और सरल वस्तु का धीरे – धार एक जटिल अवस्था में बदल जाना और भी स्पष्ट रूप में सब कछ निश्चित स्तरों में से गुजरती हुई । सादी या सरल वस्तु एक जटिल वस्तु में परिवर्तित हो जाती है तो उसे उविकास कहते है । श्री मेकाइवर और पेज के शब्दों में , ” उविकास परिवर्तन की एक दिशा है जिसमें कि बदलत हए पदार्थ की विविध दशायें प्रकट होती हैं और जिससे कि उस पदार्थ की असलियत का पता । चलता है । ” समाज में जो परिवर्तन होता है तो प्रदर्शित कर सकते है , यह रेखा या तो दीतिज हो सकती है या हो सकती है . प्रौद्योगिकी के परिणामस्वरूप हो रहे परिवर्तनों को इस अन्तर्गत रख सकते हैं , इस प्रकार के परिवर्तनों की यह विशेषता की तरफ होता है और साधारणतया उसका दृष्टिकोण उपयोगितावादी जीव – विज्ञान के क्रमिक विकास को , जिसमें डार्विन और मेण्डेल के मित के सामाजिक परिवर्तन की श्रेणी में रखा जा सकता है , इस प्रकार हम के परिवर्तनों में क्रमिक विकास या उन्नति होती है ,
उत्पादन और लागत के सिद्धांत
कोई भी आर्थिक इकाई जोकि किसी एक वस्तु या अनेक वस्तुओं के उत्पादन में संलिप्त रहती है कारक विश्लेषण की अवधारणा उसे व्यापारिक फर्म कहते हैं.
उत्पादन के सिद्धांत क्या हैं?
उत्पादन के सिद्धांत के अंतर्गत अर्थशास्त्र के कुछ मौलिक सिद्धांतों को शामिल किया जाता है. इस सिद्धांत की व्याख्या के सन्दर्भ में किसी उत्पादक या फर्म के द्वारा यह प्रयास किया जाता है कि किसी भी वस्तु की कितनी संख्या का उत्पादन किया जाये और उसके उत्पादन के लिए किन किन सामानों की आवश्यकता है, कितनी मात्रा में पूंजी की आवश्यकता है और कितने श्रम की आवश्यकता है.
इसके अंतर्गत वस्तुओं की कीमतों और उनके रख-रखाव पर खर्च किये जाने वाले पूंजी को भी जोड़ा जाता है. इस सन्दर्भ में एक तरफ किसी वस्तु की कीमत और उत्पादनकारी कारकों के मध्य के संबंध की व्याख्या की जाती है. साथ ही दूसरी तरफ वस्तु की मात्रा और उत्पादनकारी कारकों के मध्य भी संवंधों की भी व्यख्या की जाती है.
व्यक्तित्व अर्थ , मापन एवं कारक विश्लेषण की अवधारणा सिद्धांत, वर्गीकरण
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन फ्रायड ने किया था। उनके अनुसार व्यक्तित्व के तीन अंग हैं—(i) इदम् (Id), (ii) अहम् (Ego), (iii) परम अहम् (Super Ego)। ये तीनों घटक सुसंगठित कार्य करते हैं, तो व्यक्ति 'समायोजित' कहा जाता है। इनमें संघर्ष की स्थिति होने पर व्यक्ति असमायोजित हो जाता है।
(i) इदम् (Id) यह जन्मजात प्रकृति है। इसमें वासनाएँ और दमित इच्छाएँ होती हैं। यह तत्काल सुख व संतुष्टि पाना चाहता है। यह पूर्णतः अचेतन में कार्य करता है। यह ‘पाश्विकता का प्रतीक' है।
(ii) परम अहम् (Super Ego)—यह सामाजिक मान्यताओं व परम्पराओं के अनुरूप कार्य करने की प्रेरणा देता है। यह संस्कार, आदर्श, त्याग और बलिदान के लिए तैयार करता है। यह 'देवत्व का प्रतीक' है।
(iii) अहम् (Ego)यह इदम् और परम अहम् के बीच संघर्ष में मध्यस्थता करते हुए इन्हें जीवन की वास्तविकता से जोड़ता है। अहम मानवता का प्रतीक है, जिसका सम्बन्ध वास्तविक जगत से है। जिसम अहम् दृढ़ व क्रियाशील कारक विश्लेषण की अवधारणा होता है, वह व्यक्ति समायोजन में सफल रहता है। इस प्रकार व्यक्तित्व इन तीनों घटकों के मध्य समायोजन का परिणाम' है।
शरीर रचना सिद्धान्त —
इस सिद्धान्त के प्रवर्तक शैल्डन थे। इन्होंने शारीरिक गठन व शरीर रचना के आधार पर व्यक्तित्व की व्याख्या करने का प्रयास किया। यह शरीर रचना व व्यक्तित्व के गुणों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध मानते हैं। इन्होंने शारीरिक गठन के आधार पर व्यक्तियों को तीन भागोंगोलाकृति, आयताकृति और कारक विश्लेषण की अवधारणा लम्बाकृति में विभक्त किया। गोलाकृति वाले प्रायः भोजन प्रिय, आराम पसन्द, शौकीन मिजाज, परम्परावादी, सहनशील, सामाजिक तथा हँसमुख प्रकृति के होते हैं। आयताकृति वाले प्रायः रोमांचप्रिय, प्रभुत्ववादी, जोशीले, उद्देश्य केन्द्रित तथा क्रोधी प्रकृति के होते हैं। लम्बाकृति वाले प्रायः गुमसुम, एकान्तप्रिय, अल्पनिद्रा वाले, एकाकी. जल्दी थक जाने वाले तथा निष्ठुर प्रकृति के होते हैं।
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कैटल ने किया था। उसने कारक विश्लेषण नाम की सांख्यिकीय प्रविधि का उपयोग करके व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करने वाले कुछ सामान्य गुण खोजे, जिन्हें 'व्यक्तित्व विशेषक' नाम दिया। इसके कुछ कारक हैं-धनात्मक चरित्र, संवेगात्मक स्थिरता, सामाजिकता, बुद्धि आदि।
शिक्षण को प्रभावित करने वाले कारक(Factors Affecting Teaching):-
शिक्षा एक जटिल प्रक्रिया है जिसे अनगिनत तत्व प्रभावित करते हैं। यदि शिक्षक की शिक्षण प्रक्रिया प्रभावशाली नहीं रहेगी तो छात्र कुछ सीख नहीं पाएंगे और अंततः अधिगम की अधिकता हेतु शिक्षण का प्रभावी होना आवश्यक है।
(1).पारिवारिक परिस्थितियां:-
इन सभी बातों का शिक्षक के मन पर अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जो बातें शिक्षक के मन को अनुकूल रूप से प्रभावित करती है, वे शिक्षक शिक्षण को प्रभावी बनाती है और जो बातें उसके मन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है, वे शिक्षक शिक्षण को अप्रभावी बनाती है।
(2).विद्यालयी परिस्थितियां:-
विद्यालयी परिस्थितियों के अंतर्गत भी शिक्षकों के अपने अन्य साथियों, शाला प्रधान,प्रशासक आदि के साथ संबंध यदि ठीक है तो वे शिक्षण को अनुकूल रूप से प्रभावित करते हैं, किंतु यदि ठीक नहीं है तो वें उसके शिक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
2.बौद्धिक कारक (Intellectual Factors) :-
बुद्धि एक ऐसा अमूर्त तत्व है जो जितना किसी भी प्रकार के रचनात्मक कौशल के लिए महत्वपूर्ण है, उतना ही शिक्षण के लिए भी, क्योंकि शिक्षण सर्वाधिक प्रभावी तब ही हो सकता है,जब शिक्षक,स्वयं को कक्षा की परिस्थितियों के अनुरूप ढाल सके और यह कार्य उस समय तक संभव नहीं जब तक शिक्षक का बौद्धिक स्तर उच्च न हो।
अधिक नहीं तो प्रत्येक कक्षा में कुछ छात्र तो ऐसे मिल ही जाते हैं जो बौद्धिक दृष्टि से कहीं अधिक प्रखर होते हैं। इन छात्रों की जिज्ञासाओं को भी वही शिक्षक शांत कर पाता है जो स्वयं भी बौद्धिक दृष्टि से प्रखर हो।
शिक्षक बौद्धिक दृष्टि से जितना उच्च स्तर का होगा,उसका शिक्षण सामान्य उतना ही अधिक प्रभावी होगा। यदि शिक्षक प्रखर बुद्धि है तो –
(घ).वह इस स्थिति का कहीं सुलभ ढंग से निर्णय लें सकेगा कि कहां तर्क से काम लेना है और कहां अनुभव आधारित ज्ञान से।
अधिगम उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखना (Writing of Learning of Objectives in Behavioural):-
शिक्षक द्वारा अपने शिक्षण कार्य को अपेक्षाकृत वस्तुनिष्ठ एवं वैज्ञानिक बनाने के लिए अधिगम उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप से लिखने की आवश्यकता होती है। क्यों शिक्षण को निम्नलिखित रुप में सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है –
मनोवैज्ञानिक कारकों के तहत अभिक्षमता, रुचि, अभिवृत्ति, मूल प्रवृत्तियां, भावना ग्रंथियां कारक कारक विश्लेषण की अवधारणा आते हैं।
अभिक्षमता :-
शिक्षक की बहुत तकलीफ सकती है जो उसे किसी कार्य के प्रति उन्मुख करती है। इसी आधार पर कोई इंजीनियरिंग के कार्य की पसंद करता है तो कोई डॉक्टरी करना। कोई समाज सेवा करना पसंद करता है तो कोई अध्यापन। कारक विश्लेषण की अवधारणा यहां पर एक बात दृष्टिव्य है कि यदि कोई शिक्षक किसी भौतिक प्रलोभन के कारण किसी व्यवसाय या कार्य को पसंद करता है तो वह उसकी अभिक्षमता ना कह लाकर अभिवृत्ति कहलाती है। शिक्षक का झुकाव मन से अध्यापन की और नही होगा, वह अच्छा शिक्षक बन सके-यह कम ही संभव है। इससे दूसरी और जिस शिक्षक का झुकाव मन से अध्यापन की ओर है, वह यदि अच्छा शिक्षक नहीं है तो प्रयास करने पर अच्छा शिक्षक बन सकता है।
भारत में मतदान व्यवहार क्या है? - परिभाषा और कारक | Voting Behaviour in India | Hindi
मतदान व्यवहार की परिभाषा निम्नलिखित समाजशास्त्रियों और राजनीतिक वैज्ञानिकों द्वारा मतदान व्यवहार को निम्नलिखित के रूप में परिभाषित किया गया है समाजशास्त्री गॉर्डन मार्शल के अनुसार: "मतदान व्यवहार का अध्ययन हमेशा इस बात पर केंद्रित होता है कि लोग सार्वजनिक चुनावों में मतदान क्यों करते हैं और वे कैसे पहुंचते हैं। राजनीतिक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर - स्टीफन वासबी (न्यूयॉर्क स्टेट यूनिवर्सिटी, राजनीति विज्ञान विभाग) के अनुसार: "मतदान व्यवहार के अध्ययन में व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक मेकअप और राजनीतिक कार्रवाई के साथ-साथ उनके संबंध का विश्लेषण शामिल है। संस्थागत पैटर्न, जैसे संचार प्रक्रिया और चुनावों पर उनका प्रभाव। मतदान व्यवहार का महत्व मतदान व्यवहार से संबंधित वैज्ञानिक अध्ययन को सेफोलॉजी के रूप में जाना जाता है। मतदान का दर्ज इतिहास शास्त्रीय पुरातनता के ग्रीक शहर-राज्यों में वापस जाता है। मतदान व्यवहार, सेफोलॉजी के अध्ययन के लिए आधुनिक दुनिया, शास्त्रीय ग्रीक 'प्रेस्फोस' से निकला है, मिट्टी के बर्तनों का टुकड़ा जिस पर कुछ वोट, मुख्य रूप से राज्य के लिए खतरनाक माने जाने वालों का निर्वासन अंकित किया गया था। मतदान व्यवहार का अध्ययन निम्नलिखित कारणों से महत्वपूर्ण है:
सामाजिक परिवर्तन की प्रमुख विशेषताएँ :
( i ) भविस्यवाणी का अभाव ( Lack of Prediction )
( ii ) सर्वव्यापकता ( Universality )
( iii ) सापेक्ष गति ( Relative Motion
( iv ) एक जटिल प्रक्रिया ( A Complex Process )
( v ) अनिवार्यता ( Compulsory )
सामाजिक परिवर्तन के कारक :
( i ) सांस्कृतिक कारक ( Cultural Factor )
( ii ) प्राकृतिक कारक ( Natural Factor )
(iii) कारक ( Population Factor )
(iv) प्राणिशास्त्रीय कारक ( Biological Factor )
( v) मनोवैज्ञानिक कारक ( Psychological Factor )
( vi ) भौगोलिक कारक ( Geographical Factor )
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